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अभू॑रु वीर गिर्वणो म॒हाँ इ॑न्द्र॒ धने॑ हि॒ते। भरे॑ वितन्त॒साय्यः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhūr u vīra girvaṇo mahām̐ indra dhane hite | bhare vitantasāyyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अभूः॑। ऊँ॒ इति॑। वी॒र॒। गि॒र्व॒णः॒। म॒हान्। इ॒न्द्र॒। धने॑। हि॒ते। भरे॑। वि॒त॒न्त॒साय्यः॑ ॥१३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:45» मन्त्र:13 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:23» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:13


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (गिर्वणः) वाणियों से याचना किये गये (वीर) शूरता आदि गुणों से युक्त (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के देनेवाले ! आप (महान्) महाशय (वितन्तसाय्यः) अत्यन्त विजय में होनेवाले हुए (हिते) सुखकारक (धने) धन में (उ) और (भरे) सङ्ग्राम में जीतनेवाले (अभूः) हूजिये ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जो राजा सब के हित के प्राप्त होने की इच्छा करता हुआ पुरुषों में ज्ञानी, किये हुए को जाननेवाला और योद्धाओं का प्रिय होवे, उसके सदा ही विजय से प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य्य बढ़े ॥१३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे गिर्वणो वीरेन्द्र ! त्वं महान् वितन्तसाय्यः सन् हिते धन उ भरे विजेताऽभूः ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अभूः) भवेः (उ) (वीर) शौर्य्यादिगुणोपेत (गिर्वणः) यो गीर्भिर्वन्यते याच्यते तत्सम्बुद्धौ (महान्) महाशयः (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रद (धने) (हिते) सुखकारके (भरे) सङ्ग्रामे (वितन्तसाय्यः) यो वितन्तस्यतिविजयेऽस्ति सः ॥१३॥
भावार्थभाषाः - यदि राजा सर्वहितं प्रेप्सुः पुरुषज्ञानी कृतज्ञो योद्धृप्रियो भवेत्तस्य सदैव विजयेन प्रतिष्ठैश्वर्ये वर्धेयाताम् ॥१३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा सर्वांच्या हिताची इच्छा करतो, पुरुषांमध्ये ज्ञानी, कृतज्ञ, योद्ध्यांमध्ये प्रिय असेल त्याचा नेहमी विजय होतो व त्याची प्रतिष्ठा आणि ऐश्वर्य वाढते. ॥ १३ ॥